ऑटो ड्रायवर के लिखे उपन्यास पर बनी फिल्म पहुंची ऑस्कर
चैन्नई:
किसी व्यक्ति को बिना किसी जुर्म के जेल में डाल दिया और जबरन ऐसे जुर्म को कबूल करवाया जाए जो कि उसने किया ही न हो. उस जुर्म की उसे सजा भी भुगतना पडे. इसके बाद जब वह जेल से बाहर आएगा तो निश्चित ही गुस्सा और क्रोध के चलते वह बागी बन जाएगा. लेकिन इन सबके विपरीत कोयम्बटूर के एम चंद्रकुमार ने अपने गुस्से को छोड़कर पूरे मामले को एक किताब की शक्ल में लिपिबद्ध कर दिया. यह कोई कहानी नहीं बल्कि हकीकत है. एम चंद्रकुमार पर बनी फिल्म लॉस एंजिल्स में ऑस्कर में भी जा चुकी है. आइए जानते हैं ऑटो चंद्रन के बारे में.
लॉस एंजिलिस में 89वें एकेडमी अवॉर्ड में भेजी गई विसारनाई की कहानी कोयम्बटूर के ऑटो ड्राइवर एम. चंद्रकुमार के उपन्यास ‘लॉक अपÓ पर आधारित है. ऑस्कर के लिये भारत की तरफ से चुनी जाने वाली यह नौवीं फिल्म है. इससे पहले 2000 में आई तमिल फिल्म ‘हे राम को नामित किया गया था. पूरे विश्व के 120 देशों की 2,000 फिल्मों में से चुनी गई 20 फिल्मों में विसारानाई एकमात्र तमिल फिल्म है.
चंद्रकुमार पेशे से ऑटो ड्रायवर हैं. वे सवारी की प्रतीक्षा के दौरान या फिर ट्रेफिक जाम के दौरान लिखते हैं. चंद्रकुमार अपने जीवन के अनुभवओं को कलमबद्ध करते हैं. चंद्रकुमार के अनुसार मजबूत इच्छाशक्ति ही सही मायने में आपका शिक्षक है. चंद्रकमार ने जेल जाने और वहां मिली यातनाओं पर लिखे उपन्यास पर बनी फिल्म ने देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपना लोहा मनवाया है.
पुलिसिया टॉर्चर की वो भयानक यादें-
चंद्रकुमार उन पर गुजरी याातनाओं को याद करते हुए बताते हैं 30 जून 1962 को मेरे जन्म के बाद माता-पिता गांव से जमीन बेचकर कोयम्बटूर आ गए. यहां मैंने 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. परिवार से झगड़ा के बाद मैं घर से भाग गया. कई दिनों तक चेन्नई, मदुरै और तूतीकोरिन घूमता रहा. अपना गुजारा करने के लिए छोटे-मोटे काम किए. बंजारे की तरह जिंदगी बिता रहा था. इसके बाद हैदराबाद चला गया. वहां गुंटूर से 24 कि मी दूर एक गांव में होटल में काम मिला. मैं अपनी उम्र के 2-3 दोस्तों के साथ रहता था. ये बात साल 1983 की है जब मुझे तीन साथियों के साथ पुलिस ने शक के आधार पर गिरफ्तार कर लिया. मेरे तीनों साथी अल्पसंख्यक समुदाय से थे. पुलिस ने पूछताछ के लिए गिरफ्तार किया और अत्याचार करने लगे. हमें मार्च की गर्मी में छोटे-छोटे कमरों में रखा जाता था.
पुलिस जब चाहती जानवरों की तरह मारती थी. यह सिलसिला 13 दिनों तक चला. पुलिस तब तक मारती रही जब तक हमने गुनाह कबूल नहीं किया. हम भी यही सोच रहे थे कि गुनाह कबूल कर लिया जाए ताकि पुलिस की बेरहमी से बचा जा सके. हिंसा के अमानवीय दौर से गुजरने के बाद ये थाने में जुर्म कबूल कर लेते हैं लेकिन कोर्ट में मुकर जाते हैं. वहां इनकी मदद एक तमिल पुलिस इंसपेक्टर मुथुवेल करता है जो एकाउंटेंट के.के. को पकडऩे आया है जिसकी जरूरत उसके राज्य की राजनीति को है.
वेत्रीमारन टार्चर के वर्ग विभेदी चरित्र को दिखाकर पुलिसिया विरोधाभास भी रचते हैं. फिल्म सिस्टम द्वारा उपजाए गए भय और असहायता के बोध से भरी हुई है. विसरानाई मनुष्य के बीच परस्पर विश्वास और सहयोग की भावना को अपने सबटेक्स्ट में उभारती है. विसरानाई का है तो इसके निर्देशक वेत्रीमारन और प्रोड्यूसर धनुष हैं. साल 2015 के नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में ‘विसरनाईÓ को बेस्ट तमिल फिल्म सहित 3 अवॉर्ड्स मिले थे. एम. चंद्रकुमार ऑटो चंद्रन के रूप में प्रसिद्ध हैं. 51 वर्षीय चंद्रकुमार ने बस 10 वीं तक की शिक्षा प्राप्त की है लेकिन लिखना हमेशा से उन्हें पसंद रहा.
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साभार: योरस्टोरी
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