मंजिलें उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है…
नई दिल्ली.
मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता, हौंसलों से उड़ान होती है. इस बात को सच करती हैं मध्य प्रदेश के ग्वालियर की कीर्ति सक्सेना. एक हादसे में कमर के नीचे के धड़ के काम करना बंद करने के बाद लोगों ने सोचा कि जिंदगी यहीं ठहर गई लेकिन कीर्ति अपने हौसले के साथ सभी के सोच से कहीं आगे निकल गई. अस्पताल में रहकर कैट की तैयारी की, आईआईएम लखनऊ में प्रवेश लिया और पढ़ाई पूरी की. वर्तमान में बैंगलुरु स्थित एक कंपनी में कॉर्पोरेट फाइनेंस मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं.
तमाम परेशानियों के बावजूद चेहरे पर मुस्कान
कीर्ति सक्सेना वर्ष 2012 में 28 जून को ग्वालियर के सिटी सेंटर स्थित कैट की कोचिंग गई थीं. घर जाने के लिए पार्किंग से स्कूटी लेने गईं तभी बिल्डिंग पर लगा 105 किलो वजन का ग्लो साइन बोर्ड उनके ऊपर गिर गया. कोचिंग संचालक कीर्ति को लेकर हॉस्पिटल पहुंचे. यहां पिता आरके सक्सेना भी पहुंंच गए. वैसे तो कीर्ति के शरीर पर कई जगह चोट थी लेकिन कमर में चोट अधिक लगी थी. एमआरआई में चिकित्सकों ने बताया कि स्पाइनल इंजरी है. इसके बाद पिता उसे दिल्ली लेकर गए. यहां 29 जून को स्पाइन का ऑपरेशन हुआ. लेकिन इसके बावजूद पैरों से चलने में असमर्थ रही. लेकिन इसके बावजूद कीर्ति ने हिम्मत नहीं हारी अपने इरादों पर अडिग रही. पिता बताते हैं कि घटना के बाद ऑपरेशन या उसके बाद कभी भी वह रोई नहीं बल्कि हमेशा चेहरे पर मुस्कान ही रही.
तीन महीने अस्पताल में पढ़ाई
आईसीयू से जनरल वार्ड में शिफ्ट होते ही कई परेशानी एवं दर्द के बावजूद कीर्ति ने पढ़ाई शुरू कर दी. पिता से किताबें मंगाई और कैट की तैयारी शुरु कर दी.4 अक्टूबर 2012 को जब कीर्ति घर आई उसके महज 4 दिन बाद उसे भोपाल में कैट की परीक्षा देने जाना पड़ा. कैट में न केवल वह पास हुई बल्कि अच्छे अंक के चलते उसे आईआईएम लखनऊ में एडमिशन भी मिल गया. इस दौरान एमआईटीएस में बीई से सिविल का अंतिम वर्ष की
परीक्षा भी पास कर ली.
आईआईएम में भी जारी रहा संघर्ष
आईआईएम में प्रवेश मिलने के बाद भी कीर्ति की मुसीबतें कम नहीं हुईं लेकिन उन्होंने हार नहीं मानीं. वे सभी का डंटकर मुकाबला करती रहीं. संस्थान में वैसे तो 80 प्रतिशत व्यवस्थाएं थीं लेकिन इसके बावजूद कई जगहों पर आने जाने में परेशानी होती थी. उनके हॉस्टल से क्लास की दूरी 1 किमी थी. उन्हें प्रतिदिन २ से तीन चक्कर लगाना होते थे. वे ट्राइसाइकिल से जाती थीं. बारिश में छाता हाथ में नहीं ले सकती थीं तो दो रेनकोट पहनकर जाती थीं.
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अरे हमने तो कुछ किया ही नहीं…
कॉन्वोकेशन में डिग्री मिलने के बाद जब डायरेक्टर डॉ. आरके सक्सेना ने उनसे पूछा कि संस्थान में क्या व्यवस्थाएं और होना चाहिए तो उन्होंने जब इस संबंध में राय दी तो डायरेक्टर ने कहा कि अरे हम तो समझ रहे थे कि हमने बहुत कुछ कर दिया लेकिन हमने तो कुछ किया ही नहीं। उनके आने के बाद संस्थान में वे सभी व्यवस्थाएं की गईं जिसमें शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को किसी प्रकार की समस्या हो सकती थी. दरअसल कीर्ति ने कई परेशनियों के बारे में संसथान में किसी को इसलिए नहीं बताया की उन्हें ऐसा ना लगे वो शिकायत करती रहती है. जिसके कारण कई परेशानिया वे झेलती ताहीं.
ng>कई कंपनियों में हुआ सिलेक्शन
कीर्ति सक्सेना का पढ़ाई के दौरान कई कंपनियों में प्लेसमेंट हो गया लेकिन कंपनियों में स्पेशल सुविधाएं नहीं थीं जिसके कारण उन्होंने कंपनी ज्वाइन नहीं की। बैंगलुरु में स्थित एक कंपनी में उन्होंने ज्वाइन किया. यहां भी कई तरह की परेशानियां उन्हें हुईं लेकिन बाद में वे ठीक कर दी गईं।
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