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interview with kathak guru dr. rekha thakar
ग्वालियर.
बचपन से ही कथक के प्रति लगाव था। पांच वर्ष की उम्र से ही कथक सीखना शुरू कर दिया था. कॉलेज में आई तो कथक के प्रति लगाव और बढ़ गया. पोस्ट ग्रेज्युएट और पीएचडी के बाद राजस्थान पीएससी का एग्जाम दिया, इसमें लेक्चरर के पद पर सिलेक्शन हो गया लेकिन ज्वाइन नहीं किया. इसके अलावा जूनियर अकाउंटेंट के पद पर भी  एक बार सिलेक्शन हुआ लेकिन कथक के कारण इसे भी  ज्वाइन नहीं किया. यह बात जयपुर घराने की कथक कलाकार एवं जयपुर कथक केन्द्र की कथक गुरु डॉ. रेखा ठाकर ने द इंटरव्यू से बातचीत के दौरान कही.

गुरु शिष्य परंपरा को आगे बढ़ा रही हूं
शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा गुरु शिष्य परंपरा पर ही आधारित है. मैंने बचपन में गुरु नारायण प्रसाद से प्रारं भि शिक्षा ग्रहण की. इसके बाद पंडित गिरधारी से.  1979 में जयपुर में कथक केन्द्र की स्थापना हुई. इसकी मैं पहली स्टूडेंट थीं यहां मैंने विख्यात कथक नृत्याचार्य पंडित गौरीशंकर से कथक सीखा. गुरु शिष्य की परंपरा को ही आगे बढ़ाते हुए मैं अब कथक सिखा रही हूं.

पिता की ख्वाइश की पूरी
परिवार में किसी ने भी शास्त्रीय नृत्य नहीं सीखा था. पिता लखनऊ में थे तो वहां पंडित लच्छूमहाराज को देखा और उनके साथ कुछ काम कर रहे थे. तभी उन्होंने सोचा था कि बेटी शास्त्रीय नृत्य सीखे. उनकी इसी ख्वाइश को मैंने पूरा किया.

कथक मे बदलाव से बढ़ी खूबसूरती
कथक की शुरुआत कब हुई यह कहीं उल्लेख नहीं है. कथक में हमेशा से ही बदलाव होता रहा है. शुरुआत में जो भाषा कथक के लिए उपयोग की गई होगी वह संस्कृत होगी. इसके बाद हिन्दी शामिल हुई. जब नए कवि शामिल हुए तो इसमें ठुमरी, गजल और अब सूफी शामिल हुआ. कथक और लोक कलाकारों के साथ जुगलबंदी  होने लगी है. इसके अलावा वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट पर भी कथक होने लगा. लगातार इसमें परिवर्तन आए हैं. इन परिवर्तन से खूबसूरती निखरती जा रही है. लेकिन कुछ लोग हैं जो इसे निखार रहे हैं. ये बिलकुल वैसा ही है जैसे  दो पल्ले हैं जिसका एक पल्ला चमकीला है और एक पल्ला थोड़ा सा हल्का है.

 

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